ये दरार क्यों है ....?? गुरु गोबिंद सिंह जी जयंती पर विशेष
दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के साथ ही सभी का ध्यान एक ऐसी समस्या की तरफ गया जो अस्सी के दशक बाद समझा गया कि समाप्त हो गयी है । लेकिन राख के ढेर के नीचे दबी चिंगारियां कब सुलग के अंगारों की सूरत अख्तियार करने लगी यह इस तरफ तो किसी का ध्यान ही नहीं गया । गाहे-बगाहे होने वाली सुगबुगाहट को शरारत समझ कर अनदेखा करते करते आज हमें सिक्खों के एक वर्ग विशेष रूप से युवा वर्ग में खालिस्तानी रोल मॉडल्स के प्रति विशेष झुकाव एवं हिन्दुओं को अपशब्द कहने की प्रवृत्ति दिख रही है ।
अस्सी के दशक के खालिस्तानी आंदोलन के पीछे की राजनीतिक स्वार्थ एवं महत्वकांक्षाओं की कहानी तो सभी को पता है और उसके परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक विघटन और पीड़ा को उस काल का हिन्दू और सिख जानता भी है और उसने भोगा भी है । लेकिन राजनीति से उपजी जो दरार लगता था कि भर गयी वो अब ऐसा लगता है कि अपने निहित स्वार्थ के चलते राजनीतिज्ञों ने अंदर ही अंदर और चौड़ी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उत्साह और जोश से भरे सिख समुदाय के लिए उत्तेजना का यह नया लक्ष्य है ।जिस हुंकार को संस्कृति की रक्षा क लिएे तलवार उठानी पड़ी थी वो आज विरोधाभासों में उलझ गयी है ।
सिक्खों के एक वर्ग में हिन्दुओं के लिए पनप रही खाई को पाटने के लिए आपसी अंतर्विरोधों को दूर करना अति आवश्यक है और इसके लिए हमें सिकखी के आरंभ में जाना पड़ेगा । गुरु नानक देव जी ने सिख की स्थापना हिन्दू धर्म की बुराई से नहीं शुरू करी बल्कि उन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना का मार्ग लिया और शुरूआत करी "एक ओंकार " से ।
यहां सनातन का विरोध नहीं अपितु विस्तार था । वह भक्ति काल था ,जब सगुण भक्ति राम और कृष्ण की भक्ति की दो धाराओं में बह रही थी तो निर्गुण निराकार भक्ति संत और सूफी परंपराओ की ज्योति / जोत जला रही थी । वैश्विक रुप से यह पुनर्जागरण का काल था ।
नानक देव जी का परालौकिक करिश्मा चेतन रूप से जाग्रत समाज को अपनी ओर खींचने लगा । उस समय की यह प्रथा बन गयी कि हिन्दू परिवार के मांए वह पिता अपने प्रथम पुत्र को सिक्खी में दे देते थे । देने का अर्थ त्याग देना नहीं होता था ,वरन गुरु , पंथ की सेवा में देना होता था । वह संतान मां , पिता ,भाई ,बहन के साथ परिवार में ही रहकर सारी पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों का वहन करते थे ,बस जीवन शैली गुरु के आदेश, नियम अनुसार होती थी । समय बीतने के साथ परिवार बड़े होते गए और स्वाभाविक रूप से विघटित और विस्तारित होते गए और सिख पहचान तो बन गई लेकिन समाज तो एक ही था।
मुगलों के अत्याचारों से मुक्ति पाने और उन्हें सत्ता से हटाने के प्रयास पूरे भारत में सब तरफ चल रहे थे । मराठाओं और राजपूतों के साथ अनेक क्षेत्रीय विरोधों और आक्रमणों के साथ राजा रणजीत सिंह ने भी मुगलों के पांव भारत के बहुत बड़े भूभाग से उखाड़ने में अपना योगदान दिया किन्तु इसकी शुरुआत तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके पहले ही कर दी थी ।
यहां पर यह समझने की विशेष आवश्यकता है कि धर्म की रक्षा ही खालसा है का उद्देश्य था और इसी के लिए ना सिर्फ उन्होंने तलवार उठाई बल्कि अनेकानेक बलिदान दिये । दिल्ली के चांदनी चौक में स्थित सीसगंज गुरूद्वारा साहिब में तो हर हिन्दू धर्म को मानने वाले को अपने जीवन काल में कम से कम एक बार जाकर वैसे ही माथा नवाना चाहिए जैसे वो किसी भी तीर्थ में जातें हैं। औरंगजेब द्वारा गुरु तेग बहादुर के मुस्लिम धर्म न स्वीकारने के कारण उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया और इसका प्रभाव गुरु गोबिंद सिंह जी के ऊपर ऐसा पड़ा कि धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने तलवार उठाकर खालसा पंथ की स्थापना करी और इसके लिए अपने पूरे परिवार का बलिदान दिया । चारों पुत्रों सहित पूरा परिवार धर्म की रक्षा हेतु न्यौछावर करने वाले गुरु के अनुयायियों के प्रति भला कोई भी हिन्दू कैसे दुर्भावना रख सकता है ।
गुरु नानक देव जी के एक ओंकार से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी के खालसा पंथ तक सभी का उद्देश्य था कि अंदर की कुरीतियों को दूर करना और बाहरी दुश्मन से रक्षा करना अर्थात अंदर और बाहर दोनों ही रूप में धर्म का सुदृढ होना , इसमें अलगाव या दुराव था ही कहां ,जो आज हिन्दू और सिख को अलग देखा जा रहा है । दोनों को ही समझना होगा कि यह सनातन का विस्तार है ,परिष्कार है , अलगाव या विरोध नहीं ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगबीर सिंह जी इस पर विस्तार से व्याख्या करते हैं । वह गुरु वाणी की व्याख्या करते हुए वेदों से उनका साम्य एवं तात्विक गूढार्थ को बताते हैं ।राम और कृष्ण का नाम तो गुरु भी जपते हैं तो भेद है ही कहां ? विषय गहरा है और लंबा भी । दोनों ही पक्ष इसको भली भांति जानते भी हैं और समझते भी है , आवश्यकता है जो लोग तथ्यों से भटक गए हैं वे इस दुराव को दूर करें और निहित राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर जड़ को तलाशे और उसको निर्मल प्रेम के जल से सींचे तभी वृक्ष सघन होकर छांव दे पायेंगा ।
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