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नवरात्रि पर सांस्कृतिक प्रभाव: अट्टुकल भगवती मंदिर

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नवरात्रि पर सांस्कृतिक प्रभाव : अट्टुकल भगवती मंदिर


भारतीय संस्कृति पर्व संस्कृति है। उत्साह, उमंग और उल्लास का स्वरूप ही पर्व है ।और प्राय: सभी पर्व धार्मिक आस्था एवं लोक परंपरा के अनूठे गठबंधन का उत्सव है।

नवरात्र ऋतु परिवर्तन के काल का पर्व है, जिसमें प्रकृति स्वरूपा मां जगदंबा की आराधना करी जाती है । नवरात्रि के नौ दिन संपूर्ण वातावरण को अलौकिक आनंद से भर देते हैं और आगे आने वाले समय का पूर्वाभास भी देते हैं।

भारतवर्ष के हर क्षेत्र में नवरात्रि बड़े धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। आस्था, समर्पण और भक्ति से पूर्ण इस पर्व को मनाने की धार्मिक विधि या कर्मकांड सभी जगह एक जैसे या कहें कि एक ही हैं , किंतु क्षेत्रीय कला, संस्कृति और लोक परंपरा से युत होकर प्रत्येक क्षेत्र में नवरात्रि पर्व की अपनी कुछ विशेषताएं हैं ,जो श्रद्धा ,भक्ति के साथ ही हर रूप में आनंद और आह्लाद से भर देते हैं ।


सांस्कृतिक आकर्षण के कारण बंगाल की दुर्गा पूजा सर्वाधिक लोकप्रिय है और संपूर्ण भारत ही नहीं विश्व में भी स्थापित दुर्गा पूजा है। वहीं दूसरी ओर गुजरात की दुर्गा पूजा की सांस्कृतिक पहचान गरबा ने भी उतनी ही लोकप्रियता पाई है ,लेकिन इसके साथ ही देश के अन्य भागों में भी दुर्गा पूजा वहां के स्थानीय लोकाचार के साथ मनाई जाती है।


दक्षिण भारत में भी दुर्गा पूजा अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं से युक्त परंपरागत रूप से मनाई जाती है ।धार्मिक एवं सांस्कृतिक आकर्षण से भरपूर दक्षिण में नवरात्रि का उत्सव अत्यंत मनमोहक है । नवरात्रि के विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजनों में प्रतिवर्ष ही सम्मिलित होने के सभी अनुभव विशेष ही है।चाहे वह लखनऊ की मिठास से भरी मोहल्ले ‌की भजन मंडली हो या सौम्य दुर्गा पंडाल हो या कलकत्ता के फिल्मी सेट जैसे दुर्गा पंडाल। दिल्ली की सी आर पार्क में बालीवुड का जलवा या नामी रॉक बैंड हो या मिलानी दुर्गा पूजा की ऐतिहासिक व ‌कलात्मक बारीकियां हो या फिर नोएडा की हुबहू काली मंदिर का पंडाल। अहमदाबाद व बड़ौदा की गुजराती नवरात्रि हो या मुम्बई की ग्लैमरस नवरात्रि अथवा प्रगति मैदान की गरबा नाइट ।सभी तरफ घर में स्थापित घट पूजन या नियमित पाठ , व्रत या पूजन से इतर उमंग और उल्लास से भरे आकर्षित करने या विस्मित करने‌ वाले उत्सव मनाने के अनेकों आयोजन । किन्तु यहां दुर्गा पूजा के जिस अनुभव का उल्लेख है वो अलौकिक है ,कह देने के बाद भी अवर्णनीय है।


‌ केरल के तिरुवनंतपुरम के दक्षिण पूर्व में स्थित अट्टुकल भगवती मंदिर है। द्रविड़ शैली में बने मंदिर में तमिलनाडु और केरल की स्थापत्य कला का सम्मिश्रण है । मंदिर की दीवारों पर अन्य देवी देवताओं के साथ ही अनंतपुर के प्रमुख देव भगवान श्री विष्णु की मूर्तियां विशेष रूप से बनी हैं । मंदिर की मुख्य देवी मां भद्रकाली हैं , सम्मिलित रूप में मां सरस्वती और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है।


‌ अट्टुकल भगवती मंदिर का पोंगल उत्सव अत्यधिक प्रसिद्ध एवं चर्चित है। इस अवसर पर लाखों महिलाओं द्वारा पोंगल बनाने का रिकॉर्ड गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज है और प्रतिवर्ष इस संख्या में विशाल वृद्धि हो रही है ।दस दिन का यह पर्व अट्टुकल भगवती मंदिर की पहचान है । देश के विभिन्न भागों से श्रद्धालु इस अवसर पर यहां आते हैं, किंतु नवरात्रि के नौ दिन में मंदिर की परंपरागत पूजा अर्चना भी उल्लेखनीय है जिसमें नवमी एवं दशमी विशेष रुप से अत्यधिक महत्व की हैं।


नवरात्रि के नौ दिन मां भगवती की पूजा पारांपरिक रूप से पूरे कर्मकांड के साथ की जाती है।और इसके साथ ही साथ मंदिर प्रांगण में प्रतिदिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है। नवमी की रात को मां मंदिर के गर्भ ग्रह से साज श्रंगार के साथ निकलती हैं । सबसे आगे सेवादार पृथ्वी को स्वच्छ करते (झाड़ू लगाते) चलते हैं ,उसके पीछे जल प्रक्षालन के द्वारा परिक्रमा मार्ग का शुद्धिकरण करती सेविकाएं चलती हैं। फिर दंड लिए हुए, हवा में लहराते व पृथ्वी पर पटकते, जोर से टंकार वाली ध्वनि निकालते दंडी चलते हैं । उसके पीछे पीछे दुंदुभी ढोल ताशे और नगाड़े बजाते सेवक और सेवादार चलते हैं । साधारण वस्त्रों एवं सरल भाव भंगिमा वाले सेवक और सेविकाएं ,गहरे रंग -आभा ,लाल आंखें और काले वस्त्रों वाले दंडी महाराज ,और मधुर तथा तेज आवाज का मिश्रित संगीत । अचंभित करने वाली और इस सारे वातावरण ‌से होने वाली उत्सुकता के साथ भय मिश्रित आनन्द की अनुभूति अगले ही पल श्रद्धा भाव में बदल जाती है ,जब इनके पीछे पीछे सर पर कलश व उनके ऊपर दी्ये लिए सजी धजी सेविकएं चलती हैं ,और फिर ह्रदय स्थल पर मां को आसन दिए मुख्य पुजारी और अगल-बगल पुष्पवर्षा करते सेवादार और उनके पीछे मंदिर के अन्य सेवादार पुष्पों की वर्षा करते हैं ।मुख्य पुजारी के साथ ही साथ अन्य पुजारियों का समूह भी क्रमबद्ध तरीके से चलता है जो समवेत एवं उच्च स्वर में मंत्रों और श्लोकों का उच्च पाठ करता चलता है ।उन सब के पीछे देवी स्तुति गाते करबद्ध श्रद्धालु जनों की भीड़ पूरे अनुशासन के साथ मां की यात्रा में सम्मिलित होती है। सारा दृश्य अत्यंत ही मुग्ध करने वाला और आत्मसंतुष्टि प्रदान करने वाला होता है। स्वयं ताली बजाते उत्साह एवं उल्लास से भरें उस परिक्रमा का हिस्सा बनना ‌अविसमरणीय अनुभूति हैं । मां अपने आसन से उठ कर गाजे बाजे के साथ बाहर आती हैं और मंदिर प्रांगण में ही स्थित शिवजी के मंदिर में जाती हैं ,जहां ढोल ,ताशे और दुंदुभी के स्वरों से शिवजी महाराज उनका स्वागत करते हैं । शिव जी की आरती और दर्शन के बाद मां भगवती मंदिर भ्रमण करती हैं। मानों सभी भक्तजनों को आशीर्वाद दे रही हो। मुख्य गर्भ ग्रह की दो बार संपूर्ण परिक्रमा इसी लाव लश्कर के साथ करके मां वापस अपने आसन पर विराजमान होती हैं। मंत्रमुग्ध से श्रद्धालु उसी अलौकिक अनुभूति से आह्लादित रहते हैं और फिर इस भ्रमण यात्रा में मां के सहयात्री बने ,अनुगामी श्रद्धालु मां के दर्शनों का व्यक्तिगत लाभ लेकर अनुग्रहित होते हैं ।इसके बाद मंदिर पट बंद हो जाते हैं। दर्शनार्थी बाहर आकर प्रसाद ग्रहण करते हैं और मंदिर में ही फिर अगले दिन दशहरे या दशमी के दिन मां सरस्वती की पूजा और विद्या आरंभ करने वाले बालक बालिकाओं के लिए विद्या आरंभ पूजा के साथ नवरात्रि का पर्व संपन्न होता है।



नवरात्रि के सभी नौ दिनों में विशिष्ट दक्षिण भारतीय शैली में पूजा अर्चना के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी व्यवस्था चलती रहती है । दिन में संगीत सभाओं का आयोजन होता है और रात्रि में विशेष रुप से लोक नृत्य के कार्यक्रम होते हैं । मंदिर के प्रांगण में ही विशाल पंडाल में बने मंच पर छोटी-छोटी बच्चियों के समूह ,लहंगा चोली या पारंपरिक नृत्य की वेषभूषा में कथकली और कुचिपुड़ी से प्रभावित लोक नृत्य की अभिराम प्रस्तुति करते हैं। अलग-अलग समूहों में एक के बाद एक नृत्य करती कन्याओं का मनमोहक पद विन्यास और आकर्षक भाव भंगिमा है, स्वत: ही मन मोह लेती हैं । कभी लोक संगीत तो कभी कर्नाटकी संगीत की कर्णप्रिय लहरियां , फिर से यही सत्य दोहराती है कि संगीत की अपनी ही सार्वभौमिक और सार्वकालिक भाषा है ,और वह सीधे मन से संवाद करती है । एक झलक लेने को रूकने वाला , देखने वाला वहां कब तक बेसुध खड़ा या बैठा रह जाता है और कब उस में लीन हो जाता है पता ही नहीं चलता ,यह तंन्द्रा तभी टूटतीं है जब संगीत रुकता है। कभी न भूलने वाला समय चक्र भी आगे बढता ही है , लेकिन वह वापस लौट कर फिर वहीं आता है ,अनुभव‌ की पुनरावृत्ति करने को ।


हमारे पर्व हमारी लोक परंपराओं और सांस्कृतिक वैभव के वाहक हैं । एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह परंपराएं ऐसे ही चलती रहीं हैं और उनका आकर्षण सैकड़ों वर्षो से भी कम नहीं हुआ ।आगे भी सांस्कृतिक विभिन्नताओं से भरे पर्व हमारी धार्मिक , और पारांपरिक धरोहरों को धनवान बनाते रहे और इनका आकर्षण कभी कम नहो ,यही आकांक्षा है और प्रार्थना भी।


सीमा श्रीवास्तव 🙏




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